मैंने देखा, एक सिकंदर
चेहरा था, चेहरे के अंदर
परत-परत थे, ओढ़े सारे
कोई और था, पैर पसारे
जग उसने, सारा ही जीता
लेकिन, तन्हा ही वो जीता
लोग सभी, उससे घबराते
पर, वो जागे सारी रातें
बैचैनी, उसके सर डोले
बोले भी तो, किससे बोले ?!
सेवा करते, दास और दासी
लेकिन घेरे, गहन उदासी
सज-धज के, वो बाहर जाता
भीतर-भीतर, मन घबराता
हसीं फ़िज़ाएं, उसकी सारी
सांस भी लेकिन, भारी-भारी
कई जगह पर, दुआ लगाई
कुछ भी लेकिन, काम न आई
जैसे- तैसे, मुझ तक आया
सारा अपना, दुख फरमाया
बोला, बाहर भले सिकंदर
टूटा हूँ पर, पूरा अंदर !!
क्यों है ऐसा, मुझे बताओ ?
मेरे मन का, कष्ट मिटाओ.....
मैंने बोला, अरे सिकंदर !
माना तू है, टूटा अंदर
तुझे अभी तक, होश नही है
इसमे तेरा, दोष नही है
मन तेरा, बीमार पड़ा है
इसका कोई, तार छिड़ा है
काल-चक्र का, नही है फेरा
तुझको है, 'अवसाद' ने घेरा
बीमारी पे, ज़ोर नही है
तेरा मन, कमज़ोर नही है
चाहे जितनी, दुआ कराओ
संग में लेकिन, दवा कराओ
धीमे-धीमे, दिखेगा अंतर
दुविधा होगी, सब छू मंतर
ऐसे देखे, कई सिकंदर
खो बैठे सुख, मन के अंदर
हिम्मत करके, आगे आये
सारे मन के, दुख बतलाये
बीमारी से, क्यों घबराना ?!
बस, उसकी है दवा कराना
जीवन में क्यों, पल-पल मरना
कठिन नही, इसमे रस भरना
अच्छे होके , तुम भी कहना
बस बीमारी में, चुप ना रहना !!
डॉ. अक्षय चोरडिया
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